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अनंत चतुर्दशी व्रत कथा | Anant chaturdashi vrat katha

Published By: Bhakti Home
Published on: Monday, Sep 16, 2024
Last Updated: Monday, Sep 16, 2024
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Anant Chaturdashi vrat katha अनंत चतुर्दशी व्रत कथा
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अनंत चतुर्दशी व्रत कथा, Anant chaturdashi vrat katha: अनंत चतुर्दशी के व्रत को शास्त्रों में बहुत ही खास महत्व दिया गया है। अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु के अनंत स्वरूप की पूजा की जाती है और हाथ पर 14 गांठों वाला धागा बांधा जाता है।

ऐसा करने से माता लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। अनंत चतुर्दशी की पूजा में कथा का पाठ करना बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। 

आइए जानते हैं अनंत चतुर्दशी व्रत कथा (Anant chaturdashi vrat katha).

अनंत चतुर्दशी व्रत कथा - Anant chaturdashi vrat katha

अनंत चतुर्दशी व्रत कथा इतिहास

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप की रचना न केवल सुंदर थी, बल्कि अद्भुत भी थी। 

वह यज्ञ मंडप इतना सुंदर था कि जल और स्थल में कोई अंतर नहीं था। स्थल जल के समान प्रतीत होता था और स्थल जल के समान प्रतीत होता था। बहुत सावधानी बरतने पर भी बहुत से लोग उस अद्भुत मंडप में धोखा खा गए।

एक बार दुर्योधन भी भ्रमण करते हुए उस यज्ञ मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझकर उसमें गिर गया। यह देखकर द्रौपदी ने उसका उपहास करते हुए कहा 'अंधे की संतान अंधे ही होते हैं।' इससे दुर्योधन चिढ़ गया।

यह बात उसके हृदय में बाण की तरह चुभ गई। उसके मन में घृणा उत्पन्न हुई और उसने पांडवों से बदला लेने का निश्चय कर लिया। उस अपमान का बदला लेने के लिए उसके मन में विचार उठने लगे। 

बदला लेने के लिए उसने पांडवों को जुए में हराकर उस अपमान का बदला लेने का विचार किया। उसने जुए में पांडवों को हरा दिया।

पराजित होने के बाद पांडवों को अपने वचन के अनुसार बारह वर्ष तक वनवास में रहना पड़ा। वन में रहते हुए पांडवों ने अनेक कष्ट झेले। एक दिन जब भगवान कृष्ण उनसे मिलने आए तो युधिष्ठिर ने उन्हें अपना दुख बताया और दुख से मुक्ति का उपाय पूछा। 

तब श्रीकृष्ण ने कहा- 'हे युधिष्ठिर! तुम्हें नियमानुसार भगवान अनंत का व्रत करना चाहिए, इससे तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे और तुम्हें अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त हो जाएगा।' 

 

अनंत चतुर्दशी व्रत कथा - Anant chaturdashi vrat katha

इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई- प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक कुलीन तपस्वी ब्राह्मण था। 

उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक अत्यंत रूपवती, धार्मिक और तेजस्वी पुत्री थी। जिसका नाम सुशीला था। 

जब सुशीला बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी की मृत्यु के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से विवाह कर लिया। 

ब्राह्मण सुमंत ने सुशीला का विवाह ऋषि कौण्डिन्य से कर दिया। 

विदा के समय कुछ देने के लिए कहने पर कर्कशा ने अपने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांधकर दिए। 

कौण्डिन्य ऋषि दुखी होकर अपनी पत्नी के साथ अपने आश्रम की ओर चल पड़े। 

लेकिन रास्ते में रात हो गई। वे नदी के किनारे संध्या करने लगे।

सुशीला ने देखा कि वहाँ बहुत सी स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्र धारण करके किसी देवता की पूजा कर रही थीं। 

सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत का महत्व समझाया। 

सुशीला ने वहाँ वह व्रत किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बाँधकर ऋषि कौण्डिन्य के पास पहुँची।

जब कौण्डिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उसने डोरे को तोड़कर अग्नि में फेंक दिया, इससे भगवान अनन्त का अपमान हुआ। 

परिणामस्वरूप ऋषि कौण्डिन्य दुःखी हो गए। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। 

जब उन्होंने अपनी पत्नी से इस दरिद्रता का कारण पूछा तो सुशीला ने उन्हें भगवान अनन्त के डोरे को जलाने की बात बताई।

पश्चाताप करते हुए ऋषि कौण्डिन्य अनन्त डोरा प्राप्त करने के लिए वन में चले गए। 

कई दिनों तक वन में भटकने के बाद एक दिन वे निराश होकर भूमि पर गिर पड़े।

तब भगवान अनन्त प्रकट हुए और बोले- 'हे कौण्डिन्य! तुमने मेरा अपमान किया था, जिसके कारण तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़ा। तुम दुःखी हो। अब तुम्हें पश्चाताप हो गया है। 

मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अब तुम घर जाओ और नियमानुसार अनंत व्रत करो। चौदह वर्ष तक व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। 

तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने ऐसा ही किया और उन्हें सभी कष्टों से मुक्ति मिल गई।'

श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी भगवान अनंत का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पांडवों ने महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त की और लंबे समय तक राज किया।

 

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