kalashtami vrat katha, कालाष्टमी कथा: कालाष्टमी का व्रत हर साल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रखा जाता है। हालांकि कालाष्टमी व्रत कथा (kalashtami vrat katha) के बिना यह व्रत अधूरा है।
जब तक साधक इस दिन सच्चे मन से कालाष्टमी व्रत की कथा नहीं सुनता या नहीं पढ़ता, तब तक व्रत पूरा नहीं माना जाता। इसी वजह से आज हम आपको शास्त्रों में बताई गई कालाष्टमी व्रत की सही कथा के बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं, जिसे पढ़ने या सुनने मात्र से ही आप भय, क्रोध और जीवन की हर समस्या से मुक्ति पा सकते हैं।
कालाष्टमी व्रत कथा | Kalashtami vrat katha
कालाष्टमी को कालभैरव अष्टमी और महाकाल अष्टमी भी कहा जाता है। हालांकि, सबसे महत्वपूर्ण कालाष्टमी कार्तिक या मार्गशीर्ष के महीनों में मनाई जाती है। कालाष्टमी भगवान कालभैरव की पूजा करने के लिए सबसे शुभ दिन है, जो इस दिन भगवान शिव का उग्र रूप था। आईये जानते हैं कालाष्टमी व्रत कथा ।
शिवपुराण के अनुसार कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को कालभैरव का जन्म हुआ था।
मान्यता है कि कालभैरव का व्रत रखने से उपासक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और जादू-टोना व तंत्र-मंत्र का भय भी समाप्त होता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कालभैरव की पूजा करने से सभी नौ ग्रहों के दोष दूर होते हैं और उनके अशुभ प्रभाव समाप्त होते हैं।
खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए अक्सर व्यक्ति दूसरों को कम आंकने लगता है।
खुद को श्रेष्ठ साबित करने की यह लड़ाई आज से नहीं बल्कि सदियों से चली आ रही है। मनुष्य ही नहीं, देवता भी इससे बच नहीं पाए। बहुत समय पहले की बात है।
भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश यानी त्रिदेवों में इस बात को लेकर विवाद हो गया कि उनमें से कौन श्रेष्ठ है। विवाद को सुलझाने के लिए सभी देवी-देवताओं की एक बैठक बुलाई गई।
काफी विचार-विमर्श के बाद बैठक ने जो निष्कर्ष निकाला, उससे भगवान शिव और विष्णु दोनों सहमत थे लेकिन ब्रह्मा जी संतुष्ट नहीं हुए।
यहां तक कि उसने भगवान शिव का अपमान करने की भी कोशिश की, जिससे भगवान शिव बहुत क्रोधित हो गए। भगवान शंकर के इस रौद्र रूप ने काल भैरव को जन्म दिया।
सभा में उपस्थित सभी देवी-देवता शिव के इस रूप को देखकर कांप उठे। काले कुत्ते पर सवार होकर हाथों में डंडा लिए हुए अवतरित हुए काल भैरव ने ब्रह्मा जी पर आक्रमण कर दिया और उनका एक सिर धड़ से अलग कर दिया।
ब्रह्मा जी के अब केवल चार सिर बचे थे, उन्होंने क्षमा मांगी और काल भैरव के प्रकोप से खुद को बचाया।
जब ब्रह्मा जी ने क्षमा मांगी तो भगवान शिव अपने मूल रूप में आ गए, लेकिन काल भैरव पर ब्रह्मा हत्या का दोष लग गया, जिससे मुक्ति पाने के लिए वे कई वर्षों तक इधर-उधर भटकते रहे और वाराणसी पहुंचे जहां उन्हें इस पाप से मुक्ति मिली।
कुछ कथाओं में वर्चस्व की लड़ाई भी केवल ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु के बीच ही बताई जाती है।
भगवान काल भैरव को महाकालेश्वर, दंडाधिपति भी कहा जाता है। वाराणसी में दंड से मुक्ति मिलने के कारण उन्हें दंडपाणि भी कहा जाता है।
कालाष्टमी का महत्व ( kalashtami significance )
- काल भैरव को भगवान शिव का पांचवा अवतार माना जाता है, जिनकी पूजा कालाष्टमी के दिन शुभ होती है। यह दिन भगवान काल भैरव को समर्पित है।
- काल भैरव की पूजा करने से जीवन में चल रही सभी परेशानियां खत्म हो जाती हैं।
- इसके अलावा साधक को भय, क्रोध और आसपास मौजूद बुराइयों से मुक्ति मिलती है।