महालक्ष्मी व्रत कथा (Mahalakshmi vrat katha) हिन्दू धर्म में विशेष महत्व रखती है। यह व्रत देवी लक्ष्मी को समर्पित होता है, जो धन, समृद्धि और सौभाग्य की देवी मानी जाती हैं। महालक्ष्मी व्रत 16 दिनों तक किया जाता है, और इसे श्रद्धा और विश्वास के साथ करने से धन-संपत्ति, समृद्धि और सुख की प्राप्ति होती है। इस व्रत में श्रद्धालु देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं और कथा सुनने के बाद आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
यह व्रत खासतौर पर भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से शुरू होकर 16 दिनों तक चलता है, और व्रतधारी महालक्ष्मी से अपनी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रार्थना करते हैं।
महालक्ष्मी व्रत कथा | Mahalakshmi vrat katha
एक बार महर्षि श्री वेदव्यासजी हस्तिनापुर पधारे। उनके आगमन की खबर सुनकर राजा धृतराष्ट्र उन्हें आदरपूर्वक महल में ले गए। उन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठाया और चरणमोद से उनकी पूजा की।
माता कुंती और गांधारी ने हाथ जोड़कर श्री व्यासजी से पूछा- हे महामुनि! आप भूत, वर्तमान और भविष्य को देखने वाले हैं, अतः आपसे हमारी प्रार्थना है कि आप हमें ऐसा सरल व्रत और पूजन बताएं, जिससे हमारे राज्य का धन, सुख-संपत्ति, पुत्र, पौत्र और परिवार सदैव प्रसन्न रहें।
यह सुनकर श्री वेदव्यासजी ने कहा- 'हम ऐसे व्रत का पूजन और वर्णन कर रहे हैं, जिससे सदैव लक्ष्मीजी का वास हो और सुख-समृद्धि बढ़ती हो। यह श्री महालक्ष्मीजी का व्रत है, जो प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण अष्टमी को विधिपूर्वक किया जाता है।' हे महामुनि! कृपया हमें इस व्रत की विधि विस्तार से बताएं।
तब व्यासजी ने कहा- 'हे देवि! यह व्रत भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से आरंभ किया जाता है। इस दिन स्नान करके 16 सूत की डोरी बनाकर उसमें 16 गांठें लगाकर हल्दी से पीला कर लें।
प्रतिदिन 16 घास और 16 गेहूं की डोरी चढ़ाएं। आश्विन (क्वार) कृष्ण अष्टमी को व्रत रखें, मिट्टी के हाथी पर श्री महालक्ष्मी की मूर्ति स्थापित करें और विधि-विधान से पूजा करें।
व्रत करने और भक्तिपूर्वक महालक्ष्मी की पूजा करने से तुम्हारे राज्य की संपत्ति में सदैव वृद्धि होगी। इस प्रकार व्रत का विधान बताकर श्री वेदव्यासजी अपने आश्रम को चले गए।
इस बीच समयानुसार भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से गांधारी और कुंती अपने-अपने महलों में नगर की स्त्रियों के साथ व्रत करने लगीं।
इस प्रकार 15 दिन बीत गए। 16वें दिन आश्विन कृष्ण अष्टमी को गांधारी ने नगर की सभी प्रतिष्ठित स्त्रियों को पूजन के लिए अपने महल में बुलाया। कोई भी स्त्री कुंती के यहां पूजन के लिए नहीं आई।
साथ ही गांधारी ने माता कुंती को भी नहीं बुलाया। कुंती ने इसे अपना बड़ा अपमान समझा। उसने पूजा की कोई तैयारी नहीं की और उदास होकर बैठ गई।
जब पांचों पांडव युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव महल में आए, तो उन्होंने कुंती को उदास देखकर पूछा- हे माता! आप इतनी उदास क्यों हैं? आपने पूजा की तैयारी क्यों नहीं की?' तब माता कुंती ने कहा- 'हे पुत्र! आज गांधारी के महल में महालक्ष्मी के व्रत का उत्सव मनाया जा रहा है।
उसने नगर की सभी स्त्रियों को बुलाया और उसके 100 पुत्रों ने मिट्टी का एक विशाल हाथी बनाया, जिससे सभी स्त्रियां उस विशाल हाथी की पूजा करने के लिए गांधारी के यहां गईं, लेकिन मेरे यहां नहीं आईं।
यह सुनकर अर्जुन ने कहा- 'हे माता! आप पूजा की तैयारी करो और नगर में निमंत्रण भेज दो कि हमारे यहां स्वर्ग के ऐरावत हाथी की पूजा होगी।'
इधर माता कुंती ने नगर में घोषणा करवाई और पूजा की भारी तैयारियां होने लगीं। उधर अर्जुन ने अपने बाण से स्वर्ग से ऐरावत हाथी को बुला लिया।
सारे नगर में हलचल मच गई कि इंद्र का ऐरावत हाथी स्वर्ग से धरती पर उतारा जाएगा और कुंती के महल में उसकी पूजा की जाएगी। समाचार सुनते ही नगर के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े लोगों की भीड़ जुटने लगी।
गांधारी के महल में हलचल मच गई। वहां एकत्रित सभी स्त्रियां अपनी-अपनी थालियां लेकर कुंती के महल की ओर जाने लगीं। देखते ही देखते कुंती का पूरा महल खचाखच भर गया।
माता कुंती ने ऐरावत के खड़े होने के लिए नए रेशमी वस्त्र बिछवाए और अनेक रंगों के चौक बनवाए। नगर के लोग स्वागत की तैयारी में हाथों में माला, अबीर, गुलाल, केसर लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे।
जब ऐरावत हाथी स्वर्ग से धरती पर उतरने लगा तो उसके आभूषणों की ध्वनि गूंजने लगी। ऐरावत के दिखते ही विजय के नारे लगने लगे।
सायंकाल के समय इन्द्र द्वारा भेजा हुआ हाथी ऐरावत माता कुन्ती के घर के आंगन में उतरा, तब सभी नर-नारियों ने पुष्प, अबीर, गुलाल, केसर तथा अन्य सुगन्धित पदार्थ अर्पित करके उसका स्वागत किया।
राज्य पुरोहित ने ऐरावत पर महालक्ष्मी की मूर्ति स्थापित की तथा वैदिक मंत्रों द्वारा उसका पूजन किया। नगर के नागरिकों ने भी महालक्ष्मी का पूजन किया।
तत्पश्चात ऐरावत को अनेक प्रकार के व्यंजनों से भोजन कराया गया तथा उसे यमुना का जल पिलाया गया। राज्य पुरोहित ने स्वस्ति वाचन कर स्त्रियों से महालक्ष्मी का पूजन करवाया।
लक्ष्मी को 16 गांठों वाला डोरा अर्पित कर उनके हाथों में बांधा गया। ब्राह्मणों को भोजन कराया गया। स्वर्ण आभूषण, वस्त्र आदि दक्षिणा दी गई।
तत्पश्चात स्त्रियों ने मिलकर मधुर संगीत के साथ भजन कीर्तन किया तथा पूरी रात महालक्ष्मी व्रत का जागरण किया। अगले दिन प्रातःकाल राज्य पुरोहित द्वारा वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ महालक्ष्मी की मूर्ति को जलाशय में विसर्जित कर दिया गया।
फिर ऐरावत को इन्द्रलोक भेज दिया गया।
इस प्रकार जो स्त्रियाँ श्री महालक्ष्मी का व्रत और पूजन विधिपूर्वक करती हैं, उनके घर धन-धान्य से परिपूर्ण रहते हैं तथा महालक्ष्मी सदैव उनके घर में निवास करती हैं। इसके लिए महालक्ष्मी की यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए
'महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरी।
हरि प्रिया नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दया निधे।'