16 सोमवार व्रत कथा | सोलह सोमवार व्रत कथा | Solah somvar vrat katha

Published By: Bhakti Home
Published on: Saturday, Aug 31, 2024
Last Updated: Saturday, Aug 31, 2024
Read Time 🕛
6 minutes
solah somvar vrat katha
Table of contents

सोलह सोमवार व्रत कथा, Solah somvar vrat katha,16 सोमवार व्रत कथा  16 सोमवार का व्रत वैवाहिक जीवन की खुशहाली और मनचाहा जीवनसाथी पाने के लिए किया जाता है। मान्यता है कि अगर 16 सोमवार का व्रत श्रावण मास से शुरू किया जाए तो और भी फलदायी होता है। 

पौराणिक मान्यताओं में कहा जाता है कि 16 सोमवार का व्रत सबसे पहले स्वयं मां पार्वती ने शुरू किया था और अपनी कठोर तपस्या और व्रत के शुभ प्रभाव से उन्हें भगवान शिव पति के रूप में मिले थे।

 

16 सोमवार व्रत कथा | सोलह सोमवार व्रत कथा | Solah somvar vrat katha | 16 somvar vrat katha

 

16 सोमवार व्रत कथा | सोलह सोमवार व्रत कथा - 1

एक बार पार्वती के साथ भ्रमण करते हुए श्री महादेवजी मृत्युलोक में अमरावती नगरी में आए। वहां के राजा ने एक शिव मंदिर बनवाया था, जो बहुत भव्य और सुंदर था तथा मन को शांति प्रदान करने वाला था। भ्रमण करते हुए शिव-पार्वती भी वहां रुके।

पार्वतीजी ने कहा- हे नाथ! आइए, आज हम इसी स्थान पर चौसर-पंसा खेलें। 

खेल शुरू हुआ। शिवजी ने कहा- मैं जीतूंगा। इस प्रकार वे आपस में बातें करने लगे। उसी समय पुजारी पूजन करने आए।

पार्वतीजी ने पूछा- पुजारीजी, बताइए कौन जीतेगा?

पुजारी ने कहा- इस खेल में महादेवजी के समान कोई और पारंगत नहीं हो सकता, इसलिए महादेवजी ही यह खेल जीतेंगे। परंतु हुआ इसके विपरीत, पार्वतीजी जीत गईं। 

इसलिए पार्वतीजी ने पुजारी को कोढ़ी होने का श्राप देते हुए कहा कि तुमने झूठ बोला है।

अब पुजारी कोढ़ी हो गया। शिव-पार्वतीजी दोनों वापस चले गए। कुछ देर बाद अप्सराएं पूजन करने आईं। अप्सराओं ने पुजारी से उसके कोढ़ होने का कारण पूछा। पुजारी ने सारी बात बता दी।

अप्सराओं ने कहा- पुजारीजी, यदि आप 16 सोमवार का व्रत करेंगे तो भगवान शिव प्रसन्न होंगे और आपके कष्ट दूर करेंगे। 

पुजारी ने अप्सराओं से व्रत की विधि पूछी। अप्सराओं ने व्रत करने और व्रत का उद्यापन करने की पूरी विधि बताई। 

पुजारी ने भक्तिभाव से व्रत आरंभ किया और अंत में व्रत का उद्यापन भी किया। व्रत के प्रभाव से पुजारी रोगमुक्त हो गया। 

कुछ दिनों के बाद जब शंकर-पार्वतीजी पुनः उस मंदिर में आए तो पार्वतीजी ने पुजारी को रोगमुक्त देखकर पूछा- मेरे द्वारा दिए गए श्राप से मुक्ति के लिए तुमने कौन सा उपाय किया। 

पुजारी ने कहा- हे माता! अप्सराओं द्वारा बताए अनुसार 16 सोमवार का व्रत करने से मेरे कष्ट दूर हो गए हैं।

 

16 सोमवार व्रत कथा | सोलह सोमवार व्रत कथा - 2

पार्वतीजी ने भी 16 सोमवार का व्रत किया जिससे उनसे नाराज कार्तिकेय अपनी माता से प्रसन्न होकर आज्ञाकारी हो गए।

कार्तिकेय ने पूछा- हे माता! क्या कारण है कि मेरा मन सदैव आपके चरणों में रहता है। 

पार्वतीजी ने कार्तिकेय को 16 सोमवार के व्रत का माहात्म्य और विधि बताई, तब कार्तिकेय ने भी इस व्रत को किया और अपने खोए हुए मित्र को पाया। 

अब मित्र ने भी विवाह की इच्छा से इस व्रत को किया।

परिणामस्वरूप वे विदेश चले गए। वहां के राजा की पुत्री का स्वयंवर था। राजा ने प्रण किया था कि वह राजकुमारी का विवाह उसी से करेंगे जिसके गले में हथिनी वरमाला डालेगी। 

यह ब्राह्मण मित्र भी स्वयंवर देखने की इच्छा से वहां एक ओर जाकर बैठ गया। जब हाथी ने इस ब्राह्मण मित्र को वरमाला पहनाई तो राजा ने अपनी राजकुमारी का विवाह बड़े धूमधाम से उसके साथ कर दिया। इसके बाद दोनों सुखपूर्वक रहने लगे।

एक दिन राजकुमारी ने पूछा- हे प्रभु! आपने ऐसा कौन सा पुण्य कार्य किया कि हथिनी ने आपको वरमाला पहना दी? 

ब्राह्मण पति ने कहा- मैंने कार्तिकेय जी के बताए अनुसार पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से 16 सोमवार का व्रत किया, जिसके फलस्वरूप मुझे तुम्हारे जैसी सौभाग्यशाली पत्नी प्राप्त हुई। 

अब राजकुमारी ने भी सत्पुरुष प्राप्ति के लिए व्रत किया और सर्वगुण संपन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़ा होने पर पुत्र ने भी राज्य प्राप्ति की इच्छा से 16 सोमवार का व्रत किया। 

राजा के स्वर्ग चले जाने पर इस ब्राह्मण बालक को राजगद्दी मिली, तब भी यह व्रत करता रहा। एक दिन उसने अपनी पत्नी से शिव मंदिर में पूजन सामग्री ले जाने को कहा, परंतु उसने अपनी दासियों के हाथों पूजन सामग्री भिजवा दी। 

जब राजा ने पूजन समाप्त किया तो आकाशवाणी हुई कि हे राजन, आप इस पत्नी को छोड़ दीजिए अन्यथा आपको राज्य से हाथ धोना पड़ेगा। प्रभु की आज्ञा मानकर उसने अपनी पत्नी को महल से निकाल दिया।

तब वह अपने भाग्य को कोसती हुई एक वृद्धा के पास गई और अपना दुखड़ा सुनाया तथा वृद्धा से कहा- मैं राजा के कहे अनुसार शिव मंदिर में पूजन सामग्री नहीं ले गई और राजा ने मुझे निकाल दिया। 

वृद्धा ने कहा- तुम्हें मेरा काम करना पड़ेगा। उसने मान लिया, तब वृद्धा ने उसके सिर पर सूत की गठरी रखकर उसे बाजार भेज दिया। 

रास्ते में आंधी आई तो उसके सिर पर रखी गठरी उड़ गई। वृद्धा ने उसे डांटकर भगा दिया। अब रानी वृद्धा के यहां से चलते-चलते एक आश्रम में पहुंची। 

गुसाईंजी उसे देखते ही समझ गए कि उच्च कुल की यह असहाय महिला संकट में है। 

उन्होंने उसे सांत्वना दी और कहा- बेटी तुम मेरे आश्रम में रहो, किसी बात की चिंता मत करो। 

रानी आश्रम में रहने लगी, लेकिन जिस भी चीज को वह छूती, वह चीज खराब हो जाती। 

यह देखकर गुसाईंजी ने पूछा- बेटी, किस देवता के अपराध से ऐसा होता है? रानी ने बताया कि मैंने अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन किया और शिव मंदिर में पूजा के लिए नहीं गई, जिसके कारण मुझे बहुत कष्ट हो रहा है।

गुसाईंजी ने शिव से उसकी कुशलता के लिए प्रार्थना की और कहा- पुत्री तुम विधि अनुसार 16 सोमवार का व्रत करो, 

तब रानी ने विधि अनुसार व्रत पूरा किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और उसकी खोज में दूत भेजे।

रानी को आश्रम में देखकर दूतों ने राजा को सूचना दी। तब राजा ने वहां जाकर गुसाईंजी से कहा- महाराज! वह मेरी पत्नी है। मैंने उसे त्याग दिया था। 

कृपया उसे मेरे साथ आने की अनुमति दीजिए। शिव की कृपा से वह प्रतिवर्ष 16 सोमवार का व्रत करने से सुखपूर्वक रहने लगा और अंत में शिवलोक को प्राप्त हुआ।

कथा सुनने के बाद शिव की आरती 'ॐ जय शिव ओंकारा' गाएं।

 

सोलह सोमवार व्रत आरती (Solah Somvar vrat aarti)

जय शिव ओंकारा ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥


एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।
त्रिगुण रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥

अक्षमाला बनमाला रुण्डमाला धारी ।
चंदन मृगमद सोहै भाले शशिधारी ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥


कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता ।
जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर मध्ये ये तीनों एका ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी ।
नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥


त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे ।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ 

ॐ जय शिव ओंकारा ॥ 

 

BhaktiHome