Dev uthani ekadashi katha in hindi - देवउठनी एकादशी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि है। इस दिन भगवान विष्णु सहित सभी देवता चार महीने की निद्रा के बाद जागते हैं और सृष्टि का कार्यभार संभालते हैं।
देव उठनी एकादशी कथा हिंदी में | Dev uthani ekadashi katha in hindi
इस दिन भगवान विष्णु की विधि-विधान से पूजा की जाती है और उनकी प्रिय चीजों का भोग लगाया जाता है। इसके साथ ही पूजा में देवउठनी एकादशी की व्रत कथा का पाठ किया जाता है। इसका पाठ करने से भगवान विष्णु की कृपा तो मिलती ही है साथ ही व्रत का फल भी दोगुना मिलता है। आइए जानते हैं देवउठनी एकादशी की व्रत कथा।
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देव उठनी एकादशी कथा - 1 | Dev uthani ekadashi katha in hindi
एक बार लक्ष्मी जी ने भगवान नारायण से कहा- 'हे प्रभु! अब आप दिन-रात जागते रहते हैं और जब सोते हैं, तो लाखों वर्षों तक सोते रहते हैं। उस समय आप सभी सजीव और निर्जीव वस्तुओं का नाश कर देते हैं।
अतः आप प्रतिवर्ष नियमित रूप से सोएं। इससे मुझे भी कुछ समय आराम करने को मिलेगा।' लक्ष्मी जी की बातें सुनकर नारायण मुस्कुराए और बोले- 'देवी! आप ठीक कहती हैं। मेरे जागते रहने से सभी देवताओं को और विशेषकर आपको कष्ट होता है। आपको मेरी सेवा से अवकाश ही नहीं मिलता।
अतः आपकी सलाह के अनुसार आज से मैं प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु में चार महीने शयन किया करूंगा। उस समय आपको और देवताओं को अवकाश मिलेगा। मेरी यह निद्रा अल्प निद्रा कहलाएगी और प्रलय काल की गहन निद्रा। मेरी यह अल्प निद्रा मेरे भक्तों के लिए अत्यंत शुभ, उत्सवपूर्ण और पुण्यवर्धक होगी।
इस अवधि में जो मेरे भक्त मेरी निद्रा की भावना से मेरी सेवा करेंगे और प्रसन्नतापूर्वक शयन और उत्पादन के उत्सवों का आयोजन करेंगे, मैं उनके घर में आपके साथ निवास करूंगा।
देव उठनी एकादशी कथा - 2 | Dev uthani ekadashi katha in hindi
एक नगर में एक राजा था। उसके राज्य में सभी लोग बहुत सुखी थे। उस नगर में एकादशी के दिन न तो कोई अन्न बेचता था और न ही कोई भोजन पकाता था। सभी फल खाते थे। एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही।
भगवान ने एक सुंदर स्त्री का रूप धारण किया और मार्ग में बैठ गए। तभी राजा वहां से गुजरा और सुंदर स्त्री को देखकर आश्चर्यचकित हो गया। उसने पूछा- हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस प्रकार यहां क्यों बैठी हो?
तब सुंदर स्त्री बने भगवान ने कहा- मैं विवश हूं। मैं नगर में किसी को नहीं जानता, किससे सहायता मांगूं? राजा उसकी सुंदरता पर मोहित हो गया।
उसने कहा- तुम मेरे महल में चलो और मेरी रानी बनकर रहो। सुंदर स्त्री ने कहा- मैं जो कहोगी मान लूंगी, परंतु तुम्हें राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार रहेगा। मैं जो भी पकाऊंगी, तुम्हें खाना होगा।
राजा उसकी सुंदरता पर मोहित हो गया, इसलिए उसने उसकी सभी शर्तें मान लीं। अगले दिन एकादशी थी।
रानी ने आदेश दिया कि अन्य दिनों की भांति बाजारों में अन्न बिकना चाहिए। उसने घर पर मांस-मछली आदि पकाकर परोस दिया और राजा से भोजन करने को कहा।
यह देखकर राजा ने कहा- रानी! आज एकादशी है। मैं केवल फलाहार ही करूंगा। तब रानी ने उसे शर्त याद दिलाते हुए कहा- या तो भोजन कर लो, नहीं तो बड़े राजकुमार का सिर काट दूंगी।
राजा ने जब अपनी स्थिति बड़ी रानी को बताई तो रानी ने कहा- महाराज! धर्म मत छोड़ो, बड़े राजकुमार का सिर दे दो।
तुम्हें अपना पुत्र तो पुनः मिल जाएगा, परंतु धर्म नहीं मिलेगा। इसी बीच बड़ा राजकुमार खेलकर वापस आ गया।
अपनी माता की आंखों में आंसू देखकर वह रोने का कारण पूछने लगा तो माता ने उसे सारी बात बता दी।
तब उसने कहा- मैं अपना सिर देने को तैयार हूं। पिता के धर्म की रक्षा अवश्य होगी। राजा जब दुखी मन से राजकुमार का सिर देने को तैयार हुआ तो रानी के रूप में भगवान विष्णु प्रकट हुए और असली बात बताई- राजन! तुम इस कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए हो।
भगवान ने प्रसन्न मन से राजा से वरदान मांगने को कहा, तब राजा ने कहा- सब कुछ आपका दिया हुआ है। हमारा उद्धार कीजिए। उसी समय एक विमान वहां उतरा। राजा ने अपना राज्य अपने पुत्र को सौंप दिया और विमान पर सवार होकर परम धाम को चले गए।
देव उठनी एकादशी कथा - 3 | Dev uthani ekadashi katha in hindi
एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। वहाँ नौकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन भोजन नहीं दिया जाता था।
एक दिन दूसरे राज्य से एक व्यक्ति राजा के पास आया और बोला- महाराज! कृपया मुझे नौकरी पर रख लीजिए। तब राजा ने उसके सामने शर्त रखी कि ठीक है, मैं तुम्हें नौकरी पर रख लूँगा।
लेकिन तुम्हें प्रतिदिन खाने को सब कुछ मिलेगा, लेकिन एकादशी के दिन तुम्हें भोजन नहीं मिलेगा।
उस व्यक्ति ने उस समय तो मान लिया, लेकिन एकादशी के दिन जब उसे फल दिए जाने लगे, तो वह राजा के पास जाकर विनती करने लगा- महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूख से मर जाऊँगा। मुझे भोजन दीजिए।
राजा ने उसे शर्त याद दिलाई, तब भी वह अपनी बात पर अड़ा रहा और भोजन छोड़ने को तैयार नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह हमेशा की तरह नदी पर पहुँचा और स्नान करके भोजन पकाने लगा। जब भोजन तैयार हो गया, तो वह भगवान को पुकारने लगा- आओ भगवान! भोजन तैयार है।
उसके बुलाने पर भगवान पीले वस्त्र धारण कर चतुर्भुज रूप में उसके पास पहुंचे और उसके साथ प्रेम से भोजन करने लगे। भोजन करके भगवान अंतर्ध्यान हो गए और वे अपने काम पर चले गए।
पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा महाराज मुझे दोगुना भोजन दीजिए। उस दिन मैं भूखा रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि भगवान भी हमारे साथ भोजन करते हैं।
इसलिए यह भोजन हम दोनों के लिए पर्याप्त नहीं है। यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा- मुझे विश्वास नहीं होता कि भगवान तुम्हारे साथ भोजन करते हैं। मैं इतने व्रत रखता हूं, इतनी पूजा करता हूं, परंतु भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।
राजा की बातें सुनकर उसने कहा- महाराज! यदि आपको विश्वास न हो तो मेरे साथ चलकर देख लीजिए। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने प्रतिदिन की भांति भोजन पकाया और शाम तक भगवान को पुकारता रहा, परंतु फिर भी भगवान नहीं आए।
अंत में उसने कहा- हे भगवान! यदि आप नहीं आएंगे तो मैं नदी में कूदकर अपने प्राण त्याग दूंगा। फिर भी भगवान नहीं आए तो वह प्राण त्यागने के इरादे से नदी की ओर बढ़ा। उसके प्राण त्यागने के दृढ़ निश्चय को जानकर भगवान प्रकट हुए और उसे रोककर उसके पास बैठकर भोजन करने लगे।
खाने-पीने के बाद उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए। यह देखकर राजा ने सोचा कि जब तक मन शुद्ध न हो, व्रत रखने से कोई लाभ नहीं है। इससे राजा को ज्ञान हुआ। उसने भी पूरे मन से व्रत रखना शुरू कर दिया और अंत में स्वर्ग की प्राप्ति हुई।
ओम जय जगदीश हरे आरती (Om Jai Jagdish Hare Aarti)
ॐ जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे ।
भक्त जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे ॥
॥ ॐ जय जगदीश हरे..॥
जो ध्यावे फल पावे,
दुःख बिनसे मन का,
स्वामी दुःख बिनसे मन का ।
सुख सम्पति घर आवे,
सुख सम्पति घर आवे,
कष्ट मिटे तन का ॥
॥ ॐ जय जगदीश हरे..॥
मात पिता तुम मेरे,
शरण गहूं किसकी,
स्वामी शरण गहूं मैं किसकी ।
तुम बिन और न दूजा,
तुम बिन और न दूजा,
आस करूं मैं जिसकी ॥
॥ ॐ जय जगदीश हरे..॥
तुम पूरण परमात्मा,
तुम अन्तर्यामी,
स्वामी तुम अन्तर्यामी ।
पारब्रह्म परमेश्वर,
पारब्रह्म परमेश्वर,
तुम सब के स्वामी ॥
॥ ॐ जय जगदीश हरे..॥
तुम करुणा के सागर,
तुम पालनकर्ता,
स्वामी तुम पालनकर्ता ।
मैं मूरख फलकामी,
मैं सेवक तुम स्वामी,
कृपा करो भर्ता॥
॥ ॐ जय जगदीश हरे..॥
तुम हो एक अगोचर,
सबके प्राणपति,
स्वामी सबके प्राणपति ।
किस विधि मिलूं दयामय,
किस विधि मिलूं दयामय,
तुमको मैं कुमति ॥
॥ ॐ जय जगदीश हरे..॥
दीन-बन्धु दुःख-हर्ता,
ठाकुर तुम मेरे,
स्वामी रक्षक तुम मेरे ।
अपने हाथ उठाओ,
अपने शरण लगाओ,
द्वार पड़ा तेरे ॥
॥ ॐ जय जगदीश हरे..॥
विषय-विकार मिटाओ,
पाप हरो देवा,
स्वमी पाप(कष्ट) हरो देवा ।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ,
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ,
सन्तन की सेवा ॥
ॐ जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे ।
भक्त जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे ॥
तुलसी आरती (Tulsi Aarti)
तुलसी महारानी नमो-नमो,
हरि की पटरानी नमो-नमो ।
धन तुलसी पूरण तप कीनो,
शालिग्राम बनी पटरानी ।
जाके पत्र मंजरी कोमल,
श्रीपति कमल चरण लपटानी ॥
तुलसी महारानी नमो-नमो,
हरि की पटरानी नमो-नमो ।
धूप-दीप-नवैद्य आरती,
पुष्पन की वर्षा बरसानी ।
छप्पन भोग छत्तीसों व्यंजन,
बिन तुलसी हरि एक ना मानी ॥
तुलसी महारानी नमो-नमो,
हरि की पटरानी नमो-नमो ।
सभी सखी मैया तेरो यश गावें,
भक्तिदान दीजै महारानी।
नमो-नमो तुलसी महारानी,
तुलसी महारानी नमो-नमो ॥
तुलसी महारानी नमो-नमो,
हरि की पटरानी नमो-नमो ।